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खामोश

  • Poem
  • Aug 18, 2012
  • 1 min read

ये खामोश रात, काश की ये वक़्त येहि थम जाये. शांत,शीतल, कोलाहल विहीन रात, येहि थम जाये |

भूखे ही सो गए है गली के बच्चे सारे, सुबह फिर वही भूखे पेट की हाहाकार |

अच्छा है की बंद पड़ा है न्यूज़ चैनल्स भी अब, कौन सहे भ्रष्टाचार के सवाली हमले बारम्बार |

सुकून है जो चौराहे पर नहीं गूंज रहे है आंदोलनकारियों के भीषण चीत्कार |

रंगमच पर खड़े, लाडे भी बहुत, दिए भाषण ज़ोरदार, मूक, विचारविहीन दर्शक यहाँ, कौन सुनेगा उनकी पुकार |

निस्तब्द्य ज़मीर भी अब, करने लगे सारे सवाल मुझे, ये कैसी सुबह है यारो, जो रोज़ लाता है घना अंधकार ?

उससे तो ये रात ही अच्छी, काश की वक़्त यही थम जाये, शांत, शीतल, कोलाहल विहीन रात, येही थम जाये |


 
 
 

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