जी लेने दो ज़रा
- Poem
- Jun 7, 2015
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ज़िंदगी बचि हि कितनी, जो ज़िंदगी भर साथ निभाने कि बात करु,
बस दो कदम अपने साथ तुम चलने दो ज़रा |
गुलमोहर कि सुखि डालि पर, बेमौसम हि जो नन्हि कलि खिल आयि है,
उसे तनीक अंगड़ाई लेकर बाहें खोलने दो ज़रा |
मुमकिन ही नेहि कि, फिर बरसे पानी इस बंज़र ज़मी पर,
ऐ ग़ालिब! दो बुंद आंसू के, इन प्यासे आंखो को पिलेने दो ज़रा |
शाख पर पिले पत्तों कि सरसराहट रुक जायेगि ईकदिन पतझड़ मे,
तेरे शेहर से आयी ताज़ि हवा मे इन्हे झूम लेने दो ज़रा |
सजा लेना रंग बिरंगे बेजान पत्तों को अपने किताब के पान्नों पर,
इन टेहनियों को अपने शाख से टुटकर बिखरने दो ज़रा |
मदहोशि का आलम है पर होश मे है बुटा-बुटा ज़र्रा-ज़र्रा,
इनके फितरत को आज कुछ बेहलकर फिर सम्भलने दो ज़रा |
टुटकर भि लाल रंग भर देगि तुम्हारे आंगन मे ये गुलमोहर,
पर तबतक दर्दे जुनूने नशा को पी लेने दो ज़रा, जी लेने दो ज़रा |
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